hindisamay head


अ+ अ-

विमर्श

नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में विषमता की चौड़ी होती खाईं

अरुण कुमार त्रिपाठी


भारत के जाने-माने उद्योगपति आदित्य बिरला समूह के कुमारमंगलम बिरला मुंबई के मालाबार हिल्स पर बने 30,000 वर्ग फुट के जटिया हाउस को 425 करोड़ रुपये में खरीदने की तैयारी कर रहे थे। उसी के 20-25 दिन पहले वहाँ से कुछ सौ किलोमीटर की दूरी पर महाराष्ट्र के ही परभनी (बीड) जिले के चिकलथाना गाँव में मधुकर जादव अपने खेत में मरे पाए गए। उन पर स्टेट बैंक ऑफ महाराष्ट्र का 50,000 रुपये का कर्ज था। तकरीबन इतना ही कर्ज उनकी पत्नी कावेरी पर उसी बैंक से था। अब जादव की प्रतिभाशाली बेटियाँ मीरा और सुवर्णा का भविष्य अंधकारमय है। मराठवाड़ा के सूखाग्रस्त इलाके की यह कहानी वहाँ बार-बार दोहराई जा रही है। इस साल इस इलाके में 628 किसानों ने खुदकुशी की है। हर महीने औसतन 69 किसान खुदकुशी कर रहे हैं। सर्वाधिक मौतें बीड में हुई हैं जहाँ कुल 177 किसान खुदकुशी कर चुके हैं। हो सकता है कि इस व्याख्यान को तैयार करते समय और इसे प्रस्तुत किए जाते समय के बीच यह संख्या और बढ़ गई हो। कुछ पत्रकारों का कहना है कि यह आत्महत्या नहीं, सुनियोजित हत्याओं का एक सिलसिला है, जिसे किसानों का नरसंहार भी कह सकते हैं।

उदारीकरण के दौर में बढ़ती असमानता और आम आदमी की लाचारी का सबसे ज्वलंत प्रमाण इन बीस वर्षो में देश में होने वाली तीन लाख किसानों की आत्महत्याएँ हैं। सन 2013 से 2014 के बीच किसानों की आत्महत्याओं में 26 प्रतिशत वृद्धि हुई है। सन 2013 में 879 अतिरिक्त किसानों ने आत्महत्या की थी और 2012 में यह आँकड़ा 1046 का था। गौर करने लायक बात यह है कि किसानों पर सबसे बुरी मार महाराष्ट्र पर पड़ी है और 2014 में आत्महत्या करने वाले 1109 अतिरिक्त किसानों में 986 महाराष्ट्र के थे। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की रपट के अनुसार सन 2012 में 13,754 किसानों ने आत्महत्या की थी। 1995 के बाद सर्वाधिक कृषक आत्महत्याएँ सन 2004 में हुई हैं। इस दौरान 18,241 किसानों ने आत्महत्याएँ की। गौरतलब है कि भारत में यह उदारीकरण का चरम था। इसी से अतिप्रसन्न होकर एनडीए सरकार ने 'शाइनिंग इंडिया' का नारा दिया था और समय से पहले ही चुनाव मैदान में उतरने का फैसला कर लिया था।

हालाँकि अँग्रेजी जमाने में किसानों की आत्महत्या की दरें बहुत ज्यादा थी। सन 1897 में प्रति लाख की आबादी पर आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या मध्य प्रांत में 79 और बांबे प्रांत में 37 थी। यह दर 1940 से 1962 के बीच कर्नाटक में 5.7 व्यक्ति प्रति लाख थी। आज 1995 से अब तक देश भर में आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल तादाद तीन लाख तक पहुँच चुकी है। कर्ज माफी, रियायतें, मुआवजे और सिंचाई के इंतजाम के लिए बजट दिए जाने के बाद भी यह सिलसिला रुक नहीं रहा है। विडंबनापूर्ण बात यह है कि देश 29 राज्यों पर आधारित किसान आत्महत्या की संख्या में 76 प्रतिशत सिर्फ पाँच राज्यों से हैं। इनमें अगर बीमारू राज्यों की श्रेणी में रखे जाने वाले मध्य प्रदेश राज्य को निकाल दिया जाए तो महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश (आज तेलंगाना और आंध्र प्रदेश), केरल और कर्नाटक राज्य आगे बढ़े हुए राज्य माने जाते हैं।

 

अखिल भारतीय स्तर पर किसानों की आत्महत्या के आँकड़े

(स्रोत - नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो)

वर्ष आत्महत्या करने वालों की संख्या

1995 10,720

1996 13,729

1997 13,622

1998 16,015

1999 16,082

2000 16,603

2001 16,415

2002 17,971

2003 17,164

2004 18,241

2005 17,131

2006 17,060

2007 16,632

2008 16,796

2009 17,368

2010 15,964

2011 14,027

2012 13,754

2013 11,772

2014 12,360

संसद में मंत्री की तरफ से दिए गए बयान के अनुसार सन 1995 से अब तक 2,96,438 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इनमें महाराष्ट्र में 2013 तक आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 60,750 है। इस आँकड़े की गणना करें तो पता चलता है कि 1995 से 2003 तक सात मौतें रोजाना हो रही हैं।

आर्थिक असमानता और असुरक्षा की यह स्थिति मराठवाड़ा से यूरोप तक फैली हुई है। बस उसकी जड़ में कहीं प्रकृति दिखाईं पड़ती है तो कहीं युद्ध। तीन साल के सीरियाई बच्चे ऐलान कुर्दी की लाश को तुर्की के समुद्र तट पर देखकर दुनिया दहल गई है। उसकी तुलना 1972 में वियतनाम युद्ध के दौरान गिराए गए नेपाम बम के प्रभाव से खौफ खाकर नंगी भागती वियतनाम की एक बच्ची के चित्र से की जा रही है। या 1993 में सूडान के एक शरणार्थी शिविर से बाहर निकल कर आए एक कुपोषित बच्चे के मरने का इंतजार करते एक गिद्ध के दृश्य से। ऐलान कुर्दी के पिता अब्दुल्ला सीरिया के युद्ध और उससे पैदा हुई गरीबी और असुरक्षा से भागकर तुर्की पहुँच रहे थे। लेकिन रास्ते में समुद्री लहरों ने उनकी नौका डुबो दी जिसमें 12 लोग मारे गए। अब्दुल्ला ने अपनी पत्नी और बच्चों को बाँहों में उठाकर बचाना चाहा लेकिन पाया कि वे मर चुके हैं।

ऐलान कुर्दी और दुनिया की इसी विडंबना पर उमेश कुमार चौहान की कविता दुनिया की तस्वीर को इस तरह देखती है...

समुद्र तट की गीली रेत पर
खामोश लेटे मासूम ऐलान कुर्दी की तस्वीर
साफ-साफ बयाँ करती रही है कि यह दुनिया कितनी तंग दिल है
और हद दर्जे की बेरहम भी
गोया कि यह दुनिया अब एक खौफनाक आग बन चुकी है
जो सिर्फ रोटी पकाती नहीं, सिर्फ जलाती है
या कभी न पिघलने वाली बर्फ बन चुकी है,
जो इनसानियत को बचाती नहीं सिर्फ जला देती है

आखिर कौन है इस दुनिया का नियंता जो उसके बाशिदों को इतनी गुरबत और लाचारी दे रहा है। आखिर कौन है वह जो मराठवाड़ा के किसानों की सुनियोजित हत्या कर रहा है, वियतनाम की बच्ची को नंगा दौड़ने पर मजबूर कर रहा है, सूडान के भूख से तड़पते बच्चे को गिद्ध के सामने लाचार छोड़ रहा है और ऐलान कुर्दी को समुद्र तट पर फेंक कर दुनिया को दहला रहा है। ताकत, लाचारी और खौफ के इस खेल में दुनिया क्या फिर वहीं लौट रही है जहाँ से वह दो विश्वयुद्धों के बाद निकली थी। अगर हम भारत में किसानों की आत्महत्याओं की बढ़ती संख्या को देखें, यूरोप में बढ़ती शरणार्थी समस्या को देखें, इराक में युद्ध और आतंकवाद में मारे गए पचास लाख लोगों की संख्या पर गौर करें या अफगानिस्तान के युद्ध और सीरिया के युद्ध पर नजर डालें या चीन के मौजूदा आर्थिक संकट से दुनिया में आने वाली आहट को महसूस करें तो पाएँगे कि यह उन गलत आर्थिक नीतियों और उसका समर्थन करने वाली भू-राजनीतिक नीतियों और राजनीतिक कार्रवाइयों का परिणाम है जिनके तहत एक की कीमत पर दूसरे की तरक्की का खाका खींचा गया था। जिसमें असमानता को विकास की प्रेरक शक्ति माना गया था और वेतन, जायदाद में बढ़ते अंतर को सबके विकास के तौर पर देखा जा रहा था। कहा जा रहा है कि आज यूरोप की शरणार्थी समस्या द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 1945 की शरणार्थी समस्या के बाद की सबसे बड़ी समस्या है और इससे यूरोपीय संघ की पूरी अवधारणा खंड-खंड होने को है। यानी मामला सिर्फ यूनान तक सीमित नहीं है बल्कि वह बीमारी पूरे शरीर में है यूनान, स्पेन तो उसके समय-समय पर प्रकट होने वाले लक्षण हैं।

लेकिन अब दुनिया उस मुकाम पर आ गई है जहाँ पर असमानता को कतिपय राजनीतिक, सामाजिक कार्यकर्ता और कुछ वामपंथी साहित्यकार ही मुद्दा नहीं बना रहे हैं, बल्कि वे लोग भी मुद्दा बना रहे हैं जो पिछले तीस-चालीस साल से चल रही अर्थव्यवस्था के योजनाकार रहे हैं। यह सही है कि हाल में आई थामस पिकेटी की किताब - 'कैपिटल इन ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी' - ने पूँजी के असमानता बढ़ाने वाले नए चरित्र को वैश्विक स्तर पर बहस का मुद्दा बना दिया है। कहा जा रहा है कि कार्ल मार्क्स की 'दास कैपिटल' के बाद यह पूँजी पर लिखा गया सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। हालाँकि पिकेटी मार्क्स की तरह से न तो किसी आर्थिक नियतिवाद का प्रतिपादन करते हैं और न ही पूँजी के भावी चरित्र के बारे में कोई सुनिश्चित भविष्यवाणी करते हैं। लेकिन उन्होंने असमानता और विशेषकर आर्थिक असमानता को फिर से विश्व के एजेंडा पर ला दिया है। 'कैपिटल - इन द ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी' अँग्रेजी में 2014 में प्रकाशित हुई जिसके बाद दुनिया के विभिन्न हिस्सों में कोई तबका पिकेटी में मार्क्स के स्वर सुनकर खुश हो रहा है, तो कोई उनमें मार्क्सवादी व्याख्या की झलक देखकर चिढ़ रहा है।

कैपिटल के बाद पिकेटी की नई किताब - 'द इकानामिक्स ऑफ इनइक्विलिटी' ने इस बहस को नए सिरे से गरमाया है। हालाँकि पिकेटी का कहना है कि यह किताब नई नहीं है और 1997 में फ्रैंच में आई उनकी किताब का ही एक रूप है। पर इन अर्थशास्त्रियों के लेखन का असर यह हुआ है कि दुनिया में असमानता पर जो चर्चाएँ विवादास्पद मानी जाती थीं या टाली जाती थीं वे फिर से प्रासंगिकता पाने लगी हैं। थामसन रायटर्स ऑफ डिजिटल की एडिटर और फाइनेंसियल टाइम्स की पूर्व डिपुटी एडिटर क्रिस्टिया फ्रीलैंड 'प्लूटोक्रेट्स-राइज ऑफ न्यू ग्लोबल सुपर रिच एंड द फाल ऑफ इवरीवन एल्स' में लिखती हैं कि अस्सी के दशक से शुरू होकर और अभी हाल तक आर्थिक असमानता पर काम करना यूरोप और अमेरिका में एक संवेदनशील मुद्दा माना जाता था और इससे बचा जाता था। वे विश्व बैंक के एक अर्थशास्त्री बैंको मिलानोविच का जिक्र करती हैं जो अपने देश यूगोस्लाविया में अस्सी के दशक में आय की असमानता पर काम करना चाहते थे लेकिन उन्हें कहा गया कि यह संवेदनशील विषय है।

मिलानोविच ने बताया, "उन्हें एक बार वाशिंगटन के डीसी के एक थिंक टैंक (बौद्धिक) ने बताया बौद्धिकों का बोर्ड ऐसे किसी भी काम को फंड नहीं देने वाला है जिसके शीर्षक में आय और संपत्ति की असमानता का जिक्र हो।''

मिलानोविच से कहा गया कि वे गरीबी उन्मूलन पर काम कर सकते हैं और इसके लिए उन्हें बजट मिल जाएगा। लेकिन असमानता एकदम अलग विषय है। जब उन्होंने पूछा कि ऐसा क्यों तो उनसे कहा गया कि इसलिए क्योंकि कुछ लोगों की गरीबी कि चिंता करने से हमारी छवि अच्छी दिखती है। चैरिटी या दान करना अच्छी बात है इससे कुछ लोगों का अहम संतुष्ट होता है और भले ही गरीब व्यक्ति को कम सहायता मिले लेकिन इससे देने वाले को नैतिक सराहना प्राप्त होती है। लेकिन असमानता अलग चीज है और उसका जिक्र किए जाने से हमारी (संपन्न लोगों की) आय की उपयुक्तता और वैधता के बारे में सवाल खड़े होते हैं। इसकी झलक हम भारत में उन सरकारी प्रयासों के तौर पर देख सकते हैं जहाँ किसानों की आत्महत्याओं के बाद उन्हें मुआवजा और राहत पैकेज दिया जाता है या विस्थापित आदिवासियों को नया मुआवजा दिया जाता है। दरअसल भारत जैसा लोकतंत्र अपने इन्हीं सेफ्टी वाल्वों के माध्यम से अपने भीतर बढ़ती आय और जायदाद की असमानता को छिपा लेता है जो परभनी के जादव और मुंबई के बिरला के बीच भयावह रूप से बढ़ी है। वह खाईं मायावती और उनके मतदाताओं के बीच भी है और लालू प्रसाद और मुलायम सिंह व उनके मतदाताओं के बीच भी है। पर इस पर चर्चा के बजाय राहत और आरक्षण को ही विमर्श का विषय बनाया जाता है।

लेकिन आज विकसित पूँजीवादी देशों में असमानता पर बहस होने लगी है और थामस पिकेटी ही नहीं उनके जैसे तमाम अर्थशास्त्री घूम-घूम कर यूरोप और अमेरिका में इस पर भाषण दे रहे हैं। जाहिर है यह भाषण अफ्रीका और एशिया के देशों में दिए जाने वाले भाषण से अलग है और इससे फ्रांसीसी क्रांति, अमेरिकी क्रांति और पिछली सदी के रूसी क्रांति की स्थितियों की याद ताजा हो जाती है।

थामस पिकेटी के अलावा टोनी एटकिंसन और रिचर्ड विलकिन्सन जैसे अर्थशास्त्री भी असमानता के सवाल को उठा रहे हैं। यानी असमानता पर चर्चा करना अब पुराने फैशन की बात नहीं है (कह सकते हैं असमानता फिर से फैशन में आ गई है।)

अमेरिका में राष्ट्रपति पद की डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन ने 14 जून 2015 को अमेरिका में बढ़ती असमानता को अपने भाषण का केंद्रीय मुद्दा बनाया है। 15 जून को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अर्थशास्त्रियों ने एक अध्ययन जारी किया जिसमें असमानता के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। इस अध्ययन का कहना था कि असमानता से तमाम तरह की समस्याएँ पैदा होती हैं, लेकिन सरकार को इसके विकास पर पड़ने पर प्रभाव पर ध्यान देना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यह मानने लगा है कि असमानता बढ़ने से विकास की रफ्तार कम हो रही है। आईएमएफ के अध्ययन में कहा गया है कि अगर ऊपर के 20 प्रतिशत की आय में 1 परसेंटेज प्वाइंट की वृद्धि हुई तो विकास दर 0.08 परसेंटेज प्वाइंट घट जाएगी। लेकिन अगर नीचे के 20 प्रतिशत तबके की आय बढ़ी विकास दर बढ़ेगी।

हालाँकि अमेरिकी अर्थशास्त्रियों में यह राय थी कि असमानता बढ़ाया जाना एक प्रकार से उद्यमशीलता को प्रोत्साहन है। अगर वह नहीं किया जाएगा तो खतरा कौन लेगा और नवोन्मेष कौन करेगा। इसी सिद्धांत को 1975 में एक अलग समीकरण के साथ पेश करते हुए अर्थशास्त्री आर्थर ओरकुन ने कहा था कि समाज संपूर्ण समानता और संपूर्ण दक्षता दोनों नहीं रख सकता। एक के लिए दूसरे को कितना बलिदान किया जाए यह एक गंभीर दुविधा भी है और सवाल भी।

लेकिन आज दुनिया फिर इसी दुविधा के द्वार पर आकर खड़ी हो गई है। अब फिर अर्थशास्त्रियों का समूह यह कहने लगा है कि असमानता से विकास दर कम हो जाएगी। इसकी कई वजहें हैं, जैसे कि इससे निचले तबके के लोगों की सेहत खराब हो जाएगी। वह इलाज नहीं करा पाएगा और उत्पादकता पर असर पड़ेगा। असमानता का नुकसान झेलने वाला व्यक्ति अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं दे पाएगा और फिर इससे उत्पादकता पर असर पड़ेगा। असमानता से बढ़ते खतरे का एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी है जिसे अर्थशास्त्री तेजी से महसूस कर रहे हैं और वो यह कि इससे मुक्त व्यापार में जनता का यकीन हिल सकता है। यह बात इंस्टीट्यूट फॉर एडवांसड स्टडी इन प्रिंसटन के डानी रोड्रिक कहते हैं।

भारत के रिजर्व बैंक के मौजूदा गवर्नर सन 2010 में अपनी पुस्तक 'इकानमिक इनइक्विलिटी कुड लीड टू फाइनेंसियल इनस्टेबिलिटी' में इस खतरे को रेखांकित करते हैं। साथ ही वे उन उपायों के खतरे के प्रति भी आगाह करते हैं जो सरकारें इससे निपटने के लिए उठाती हैं। वे कहते हैं कि कुछ सरकारें गरीबों को ज्यादा कर्ज देकर गरीबी घटाने के बारे में सोचती हैं लेकिन वेतन में कम वृद्धि होने के कारण इससे उपभोग ठहर जाता है। यानी विकास पर नकारात्मक असर पड़ता है।

असमानता से पैदा होने वाली विकास संबंधी विसंगतियों के बारे अर्थशास्त्री बेन बरनरके और लैरी समर्स कहते हैं - इससे बचत में इजाफा होता है। बचत बढ़ने के ब्याज दर घटती है, जायदाद की कीमत बढ़ती है, कर्ज लेने का सिलसिला बढ़ता है और फिर केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था को सँभाल नहीं पाते। अमेरिका का सब-प्राइम संकट इसके एक उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।

आज महज विकास कहने से उस तरह से आत्मविश्वास का बोध नहीं होता है जिस तरह 1990 के दशक में होता था। विकास का जो रास्ता उस समय पूरे जोर-शोर से अपनाया गया वह नए किस्म के अवरोधों का शिकार हो रहा है। विकास अपने आप असमानता दूर नहीं करता। बल्कि असमानता विकास की रफ्तार को थाम लेती है और उसे अपनी गति और दिशा के बारे में सोचने पर मजबूर करती है। भारत में आज एनडीए सरकार की तरफ से दिए जा रहे नारे 'सबका साथ, सबका विकास' को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। एक तरफ कहा जा रहा है कि विकास की छूट देने के लिए पिछले तीस सालों में अमीरों पर कर घटाया गया जिससे असमानता बढ़ी है। यह अमेरिका का अनुभव है जिसे उनके तमाम अर्थशास्त्री कह रहे हैं। दूसरी तरफ लातीन अमेरिका के अनुभव को असमानता घटाने वाला बताया जा रहा है। लेकिन वहाँ असमानता घटाने के लिए सरकारों ने एक तरफ आर्थिक गतिविधियों पर नियंत्रण कायम किया जिससे विकास दर में कमी आई है। आज ब्राजील में राष्ट्रपति डेल्मा रऊफ से वहाँ का मध्यवर्ग नाराज है। क्योंकि वह जिस तरह अपनी समृद्धि चाहता था वैसी नहीं हो पा रही है। वह इस बात से भी असंतुष्ट है कि उसकी तुलना में समाज के निचले तबके को ज्यादा हासिल हुआ है।

वैसे तो असमानता का सवाल बहुत पुराना है लेकिन नए संदर्भ में उसे उदारीकरण और उसके साथ जुड़े लोकतंत्र की बड़ी विफलता के रूप में देखा जा रहा है। यह बात सन 2008 में शुरू हुई अमेरिकी मंदी के साथ पैदा हुई पूरी दुनिया में प्रदर्शनों की लहर से जुड़ी हुई है। उस समय ट्यूनीशिया, मिस्र, सीरिया, भारत में हुए विरोध प्रदर्शनों और अकूपाई वाल स्ट्रीट के आंदोलन ने एक प्रतिशत बनाम 99 प्रतिशत का सवाल खड़ा कर दिया। इस आंदोलन के समय मौजूदा व्यवस्था पर तंज करते हुए नोबेल अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिग्लट्ज ने लिखा था - 'बाइ दा वन परसेंट, ऑफ द वन परसेंट, फार द वन परसेंट।

बल्कि इस बात को ज्यादा पैनेपन के साथ रखते हुए प्लूटोक्रेट्स में क्रिस्टिया फ्रीलैंड कहती हैं - एक प्रतिशत के बारे में भूल जाइए। अब उन 0.1 प्रतिशत पर ध्यान देने की जरूरत है जो कि धूम-धड़ाके वाली गति से बाकी लोगों को दरकिनार कर रहे हैं। अमीर और गरीब के बीच पहले भी खाईं होती थी लेकिन पिछले दशकों में यह खाईं बेतहाशा बढ़ी है। खास बात यह है कि पहले की अमीरी कई पीढ़ियों पुरानी और वंशानुगत होती थी लेकिन आज की अमीरी उन लोगों की है जिन्होंने यह अमीरी खुद कमाई है। वे महाधनाढ्य लोग हैं। सिटीग्रुप के भीतरी मेमो में ग्राहकों से कहा जाता है कि वे राष्ट्रों के सिलसिले में निवेश का खाका तैयार करने की बजाय अमीरों की अर्थव्यवस्था की बारे में योजना तैयार करें। वे उन पार्टियों का जिक्र करती हैं जिनमें किसी बैंकर के जन्मदिन पर तीस लाख डालर की पार्टी दी जाती है और कहा जाता है कि इससे लोगों को आय होती है।

यह स्थितियाँ कब और कैसे पैदा हुईं इसके बारे में क्रिस्टिया फ्रीलैंड साफ शब्दों में कहती हैं कि 1940 के दशक से लेकर 1970 और अस्सी के दशक यानी जब तक लाल खतरा था तब तक विकास भी हुआ और लोगों के आय के बीच की असमानता भी घटी। उस समय अमेरिका संभावनाओं और अवसरों की भूमि थी। उस समय मध्यवर्ग खुश था। इस पर अमेरिका की न्यू डील और पश्चिमी यूरोप की सामाजिक कल्याण की योजनाओं का भी असर था। "आर्थिक वृद्धि बढ़ रही थी और आर्थिक असमानता तेजी से कम हो रही थी। लेकिन 1940 के दशक और 1970 के दशक में अमेरिका में ऊपर के एक प्रतिशत और बाकी लोगों के बीच की खाईं कम हो रही थी। ऊपर के एक प्रतिशत के आय की हिस्सेदारी 16 प्रतिशत से घटकर 7 प्रतिशत पर आ गई। 1980 में अमेरिका के औसत सीईओ की आय आम मजदूर से 43 गुना होती थी। लेकिन 2012 तक यह अंतर 380 गुना हो गया। उस समय करों की दरें ज्यादा थीं (ऊपर के वर्ग के लिए 70 प्रतिशत तक थी)। तीव्र आर्थिक वृद्धि की दर 3.7 प्रतिशत थी। यह वही दौर था जब सोवियत खेमे का जीवन स्तर पश्चिम के मुकाबले पिछड़ रहा था और पश्चिम में सोवियत संघ और उसके खेमे के देशों के खौफ के चलते जीवन स्तर सुधर रहा था। शायद इसी को भाँपते हुए चीन में तंग श्याओ फिंग ने आर्थिक ढाँचे का उदारीकरण 1979 में ही शुरू कर दिया था। जबकि सोवियत संघ में वह अपेक्षित बदलाव देर से हुआ और जब तक ग्लासनोस्ट और पेरेस्त्रोइका जैसा इलाज कुछ काम करता तब तक सोवियत संघ का पतन और विघटन शुरू हो चुका था। जबकि वह समय अमेरिकी मध्यवर्ग का स्वर्ण युग कहा जाता है। जिसे भारत में अस्सी और नब्बे के दशक में देखा गया।''

यह ट्रीटी ऑफ डेट्रायट का युग था। वह संधि 1950 में जनरल मोटर्स की ट्रेड यूनियन के अध्यक्ष वाल्टर रायटर के बीच पाँच साल के लिए हुई थी और बाद में वह फोर्ड और क्रिसलर जैसी बड़ी आटोमोबाइल कंपनियों के साथ भी हुई। इसके तहत मजदूरों की पेंशन और स्वास्थ्य केयर को लेबर कांट्रेक्ट का हिस्सा बनाया गया। हालाँकि इस संधि के लिए 1945 से 1949 तक मजदूरों की लंबी-लंबी हड़तालें हुईं। चालीस साल बाद जब यह संधि वाशिंगटन कन्सेंसस यानी बाजारवादी कट्टरता या नवउदारवाद के 1989 में आने के साथ भंग हुई तो असमानता बढ़ने का सिलसिला तेज हुआ। हमें मालूम होगा कि वाशिंगटन सहमति दस विंदुओं का वह आर्थिक प्रस्ताव है जो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और अमेरिकी वित्त विभाग ने लातीन अमेरिकी देशों और विकासशील देशों का आर्थिक संकट दूर करने के लिए तैयार किया था। इसे तैयार करने में ब्रिटिश अर्थशास्त्री जान विलियम्सन का बड़ा योगदान रहा है। यही आर्थिक नीतियाँ हैं जो आज की दुनिया की अच्छी बुरी स्थितियों के लिए जिम्मेदार हैं। इसके पीछे, प्रौद्योगिकी क्रांति और वैश्वीकरण जिसमें मुख्य भूमिका वित्तीय संस्थाओं का विस्तार प्रमुख है, मुख्य कारक हैं।

यही वह दौर है जब रोनाल्ड रेगन और मार्गरेट थैचर ने आर्थिक नीतियों में बदलाव का दौर शुरू किया जिसे रीगनामिक्स और थैचरानमिक्स के नाम से जाना जाता है। रीगन ने उच्च वर्ग के कर को 70 प्रतिशत से घटाकर 28 प्रतिशत कर दिया, पूँजी प्राप्तियों के कर को अधिकतम 20 प्रतिशत तक गिरा दिया, ट्रेड यूनियनों का दमन किया गया, सामाजिक कल्याण पर खर्च कम किया गया और अर्थव्यवस्था का विनियमन कर दिया गया। यही वह दौर है जब सोवियत खेमे के समाजवाद का पतन होने लगा और चीन ने पूँजीवाद का विरोध छोड़कर तंग श्याओ फिंग की लाइन पर अपनी सरकारी कंपनियों का निजीकरण शुरू किया और निजी उद्यमशीलता को बढ़ावा देना शुरू किया।

नवउदारवादी नीतियों ने किस प्रकार आर्थिक असमानता में वृद्धि की उसकी चर्चा नब्बे के दशक में भी होती थी और सदी के आरंभिक दशक में भी होती थी लेकिन 2008 की मंदी के बाद वह अमेरिका से भारत तक ज्यादा जोर-शोर से उजागर हुई। भारत में हाल में जारी जनसंख्या के आँकड़े इस कहानी को चौंकाने वाले तरीके से बयान करते हैं। आज भारत में 40 से 42 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनकी महीने की आमदनी पाँच हजार रुपये से भी कम है। यह आबादी उससे भी ज्यादा है जो 1951 में देश की आबादी थी। देश के ग्रामीण परिवारों की संख्या 17.92 करोड़ है जिसमें 3.3 करोड़ परिवार अनुसूचित जाति और 2.0 परिवार अनुसूचित जनजाति और 12.64 करोड़ परिवार अन्य हैं। ऐसे परिवार जिनकी आमदनी पाँच हजार रुपये महीने से कम है उनकी संख्या 13.34 करोड़ है। यहाँ एक परिवार की औसत सदस्य संख्या चार से पाँच के बीच मानी गई है। देश में ग्रामीणों की संख्या 88 करोड़ है जिसमें से आधी संख्या श्रम करने वाले दिहाड़ी मजदूरों की है। यह सब गरीब की ही श्रेणी में आते हैं। देश में चार करोड़ परिवार (यानी 17 करोड़ लोग) ऐसे हैं जिनमें 25 साल से ऊपर वाला कोई व्यक्ति साक्षर नहीं है। देश में भूमिहीन परिवारों की संख्या 5.37 करोड़ है। यह सब लोग अपनी आय दिहाड़ी मजदूरी से करते हैं।

अर्जुन सेन गुप्ता समिति ने असंगठित क्षेत्र के लोगों पर 1993-1994 और 2004-05 के बीच सरकारी आँकड़ों का विश्लेषण करते हुए निष्कर्ष निकाला कि 83.6 करोड़ 20 रुपये रोजाना प्रति व्यक्ति से कम खर्च पर अपना गुजर करते हैं। यह आँकड़ा उस दौर का है जब गरीबी घटाने का दावा किया जाता है। इस दौरान गरीबी का प्रतिशत जरूर घटा हो लेकिन गरीबों की संख्या में दस करोड़ की बढ़ोतरी हुई। जबकि नव धनाढ्य-वर्ग की संख्या में 9.3 करोड़ की वृद्धि हुई और मध्य वर्ग की संख्या 16.2 करोड़ से बढ़कर 25.3 करोड़ हो गई।

कुछ वर्ष पुराने आँकड़ों के अनुसार भारत के सबसे अमीर व्यक्ति मुकेश अंबानी रोजाना 11000 करोड़ रुपये की आमदनी करते हैं। सन 2013-14 में उनका कुल टर्नओवर 401,302 करोड़ रुपये था।

मुकेश अंबानी का सालाना वेतन 15 करोड़ रुपये है। कंपनी बोर्ड ने उनका वेतन 38.86 करोड़ सालाना के लिहाज से मंजूर किया था लेकिन उन्होंने सादगी का परिचय देते हुए इसे आधे से भी कम पर रखा। आरआईएल के प्रमुख कार्यकारी निदेशक पीएमएस प्रसाद का वेतन 6.03 करोड़ रुपये सालाना है। मुकेश अंबानी के भतीजे निखिल खेमानी का वेतन 12.03 करोड़ रुपये है।

यहाँ मुकेश अंबानी के शानदार भवन का जिक्र किए बिना उनकी रईसी का वर्णन पूरा नहीं होगा। सत्ताइस मंजिले एंटीलिया नाम के उनके इस भवन की कीमत 22.3 अरब डालर यानी कि 1427.2 अरब रुपये (142720 करोड़ रुपये है)।

यहाँ हम अपने प्रधानमंत्री का जिक्र नहीं करना चाहते जिन्होंने इसी अमीरी की परंपरा का पालन करते हुए गणतंत्र दिवस पर अपना नाम लिखा हुआ जो सूट पहना वह दस लाख रुपये का था। उस सूट की नीलामी पर अलग-अलग कहानियाँ निकलीं। पर इतना जिक्र कर देना जरूरी होगा कि मोदी सरकार विदेश यात्राओं के मामले में यूपीए सरकार से पीछे नहीं है। अगर यूपीए सरकार ने 2013-14 में 258 करोड़ रुपये की विदेश यात्राएँ की थीं तो मोदी सरकार ने 317 करोड़ रुपये विदेश यात्राओं पर खर्च किए।

भारत की असमानता के बारे में ज्याँ द्रेज और अमर्त्य सेन ने - 'एन अनसर्टेन ग्लोरी' में ज्यादा जिक्र तो नहीं किया है लेकिन उन्होंने उन तमाम स्थितियों का वर्णन जरूर किया है जो 2008 की मंदी के दौर में उजागर हो रही थीं और जो इंडिया शाइनिंग या अच्छे दिनों के दावे की कलई खोल रही थीं। वे लिखते हैं कि पारंपरिक आर्थिक विश्लेषण के आधार पर हम भारत को दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले ज्यादा असमान नहीं कह सकते। उनकी यह धारणा उस गिनी सूचकांक की गणना पर आधारित है जिसके तहत सर्वाधिक असमानता होने पर यह सूचकांक 1.0 और सबसे कम असमानता होने पर सूचकांक 0.0 होता है। भारत में असमानता का स्तर कम बताने वालों ने भारत के प्रति व्यक्ति व्यय को दूसरे देशों की प्रति व्यक्ति आय तुलना की है। लेकिन उनका यह भी दावा है कि भारत में विश्वसनीय आँकड़ों की अनुपस्थिति के कारण भी यह गणना ज्यादा साफ नहीं हो पाती। शायद यहाँ मिलानोविच वाली स्थिति भी है, जिसे असमानता का ज्यादा अध्ययन करने से रोका गया था।

विश्व बैंक के अध्ययन में कहा गया है कि भारत में प्रति व्यक्ति गिनी सूचकांक 0.54 है जो कि खर्च के आँकड़े के आधार पर निर्धारित किए गए 0.35 के आँकड़े से बहुत ज्यादा है। विश्व बैंक कहता है कि, "भारत में असमानता का स्तर वैसे ही जैसे ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे उच्च असमानता के स्तर वाले देशों का।''

विश्व बैंक के अनुसार प्रति व्यक्ति खर्च का आँकड़ा बताता है कि गाँव और शहर के बीच असमानता बढ़ी है और शहरी इलाकों में भी असमानता बढ़ रही है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि इस बीच भारत में हुई तीव्र आर्थिक वृद्धि का लाभ शहरों के समृद्ध वर्ग को ही प्राप्त हुआ है। इसी तरह प्रति व्यक्ति आय का आँकड़ा बताता है कि ऊपर के स्तर पर आय का केंद्रीकरण बढ़ रहा है और संपत्ति के आँकड़े बताते हैं कि सुधार के बाद के दौर में गरीबी घटने की गति धीमी रही।

यहाँ बावन साल पहले समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया का संसद में 21 अगस्त 1963 को अविश्वास प्रस्ताव पर दिया गया भाषण याद आ रहा है। उस भाषण को सन 2013 में 'लोकसभा में लोहिया' का संपादन करते हुए मस्तराम कपूर ने आज के संदर्भ से कुछ इस प्रकार जोड़ा था - "इसी भाषण में उन्होंने यह सवाल उठाया था कि भारत के 27 करोड़ लोग (लगभग 70 प्रतिशत आबादी) तीन आने रोज पर गुजर करते हैं और प्रधानमंत्री के कुत्ते पर तीन रुपये रोज और प्रधानमंत्री पर 25,000 रुपये रोज खर्च होता है। यह स्थिति आज भी बनी हुई है। अर्जुन सेन गुप्त आयोग की रपट के अनुसार 84.4 करोड़ रुपये (आबादी का लगभग 78 प्रतिशत) 20 रुपये रोज पर गुजारा करते हैं और ये 20 रुपये 1963 के तीन आने यानी 20 नए पैसे के बराबर होते हैं यदि कीमतों में सौ गुना वृद्धि मान लें जो कि निश्चय ही है।''

डॉ. लोहिया के भाषण के शब्द इस प्रकार थे - "जैसा कि हिंदुस्तान के योजना कमीशन के एक सदस्य ने कहा है कि 60 सैकड़ा कुटुंब 25 रुपये महीना पर निर्वाह करते हैं। यानी 27 करोड़ लोग तीन आने रोज के खर्च पर जिंदगी निर्वाह करते हैं। मैं चाहता हूँ कि यह हमेशा याद रखा जाए कि 27 करोड़ आदमी तीन आने रोज के खर्च पर जिंदगी चला रहे हैं, जबकि प्रधानमंत्री के कुत्ते पर तीन रुपये रोज खर्च करना पड़ता है। यह है हमारे आज के हिंदुस्तान की हालत...।

हमारे देश में गैर बराबरी जितनी थी उससे भी ज्यादा बढ़ती चली जा रही है। मैं खाली यही बताऊँ कि हमारे देश में खेत मजदूर 12 आने रोज कमाता है, क, ख, ग या अलिफ वे, पे पढ़ाने वाला अध्यापक दो रुपये रोज कमाता है। हिंदुस्तान का एक व्यापारी खानदान है जो तीन लाख रुपये रोज कमाता है, जो सबसे अमीर व्यक्ति है हिंदुस्तान का वह तीस हजार रुपये रोज कमाता है और सरकार में सबसे बड़ा आदमी है, यानी प्रधानमंत्री उसके ऊपर पच्चीस से तीस हजार रुपये रोज खर्च होते हैं।"

हम सभी जानते हैं कि तीन आने बनाम पंद्रह आने की यह बहस लोकसभा में काफी तल्ख हो गई और डॉ. राम मनोहर लोहिया और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के बीच तीखी नोंक-झोंक हुई।

उसकी एक झलक इस प्रकार है - जवाहर लाल नेहरू - डॉ. राम मनोहर लोहिया ने हिसाब निकाला है कि देश की 60 प्रतिशत जनता की प्रति व्यक्ति औसत आमदनी तीन आने रोज है। मैं नहीं जानता कि वे इस नतीजे पर कैसे पहुँचे। इस गणित में उन्होंने बहुत सारी गलतियाँ की हैं, प्रति परिवार और प्रति व्यक्ति की आय में उन्होंने भ्रम पैदा किया है। अवश्य उन्होंने इसे पाँच से भाग दे दिया...।

जेबी कृपलानी - खेत मजदूर पंद्रह आने रोज नहीं पाते हैं।

जवाहर लाल नेहरू : जी हाँ। जो गलती डॉ. लोहिया ने की है, वह यह है कि पर कैपिटा इनकम को पर फैमिली इनकम कर दिया है। वह घबरा गए और फैमिली को उन्होंने पाँच का गिना और उस इनकम को पाँच से डिवाइड कर दिया।

राम मनोहर लोहिया : अच्छा हिसाब लगा लीजिए कि 27 करोड़ आदमियों की आमदनी तीन आने प्रति आदमी के हिसाब से कितनी आती है और एक रुपये के हिसाब से कितनी आती है। इसमें प्रधानमंत्री जी भारी भूल कर रहे हैं।

जवाहर लाल नेहरू : मैंने हिसाब लगा लिया। इस बारे में मेरे पास एक साहब का नोट है जो कि इस प्रकार है - डॉ. लोहिया प्रति व्यक्ति 25 रुपये की आय को परिवार की आय मान बैठे हैं। उनके सारे निष्कर्ष इस भ्रांति पर आधारित हैं, इसके परिणाम स्वरूप उन्हें गलत नतीजे प्राप्त हुए हैं....।

डॉ. लोहिया : अध्यक्ष महोदय एक ऐसा सवाल उठाया गया है तीन आने बनाम पंद्रह आने का, जिसके बारे में मैं एक बात कहना चाहता हूँ।

लोहिया : तीन आने और पंद्रह आने वाली बात अगर सही है तो मैं इस सदन से निकल जाऊँगा और अगर वह गलत हैं तो उनको प्रधानमंत्री बने रहने का कोई हक नहीं है।

अध्यक्ष : इस वक्त तो बैठ जाइए।

डॉ. राम मनोहर लोहिया : प्रधानमंत्री ने मेरे दिमाग को ओछा कहा है, मैं उनके दिमाग को ओछा, गंदा और डरपोक कहता हूँ।

लोकसभा में 23 अगस्त 1963 को भी बहस जारी रहती है और उस समय बैंकों के राष्ट्रीयकरण पर बहस होती है। डॉ. लोहिया कहते हैं कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पूँजीशाही का निर्माण रुकेगा नहीं। लेकिन वे फिर चिंता जताते हैं कि बैंकों के राष्ट्रीकरण के फायदे के बावजूद आय की असमानता उनके लिए और आर्थिक स्थितियों के लिए चिंता का विषय है।

डॉ. लोहिया कहते हैं - "भारत में निजी क्षेत्र बन गया है, बदइंतजामी वाला और सार्वजनिक क्षेत्र बन गया है लालच वाला। दोनों के अवगुण एक दूसरे ने सीख लिए हैं। इसलिए सबसे पहले मैं इस बात पर जोर दूँगा कि सार्वजनिक क्षेत्र में मजदूरी का फर्क इतना नहीं रहना चाहिए। अफसर और मजदूर के बीच बहुत फर्क है। राउरकेला के सार्वजनिक क्षेत्र में फौलाद के कारखाने में जो कि सार्वजनिक क्षेत्र में है एक हजार अफसरान को करीब 30 लाख रुपये महीने सुविधाओं और नौकरियों में मिल जाते हैं और दूसरी तरफ तीस हजार मजदूरों को 30 लाख रुपये मिलते हैं। यह गैर-बराबरी करीब-करीब वैसी ही है जैसी जमशेदपुर के टाटा कारखाने में। अगर इस तरह की गैर-बराबरी रखते हुए राष्ट्रीयकरण होता है तो उसका कोई मतलब नहीं हुआ करता है। ...मैं नहीं समझता कि मेरी जिंदगी में इस तरह की गैर बराबरी मिट सकेगी। 20-30 वर्ष पहले बोलता तो कहता कि यह बिलकुल मिटाई जाए। आज मैं इसको घटाओ की बात कहूँगा।''

यहाँ संदर्भ के लिए यह बताना दिलचस्प है कि 1963 में इस बहस के उठने जब डॉ. लोहिया संसद में नहीं पहुँचे थे तो सोशलिस्ट पार्टी के तत्कालीन सांसद किशन पटनायक ने लोहिया के हवाले से इस मसले पर प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। इस पत्राचार की शुरुआत 14 अगस्त 1962 को हुई। सबसे पहले किशन पटनायक ने पत्र लिखा जिसका जवाब जवाहर लाल नेहरू ने दिया। उस पत्र का जवाब किशन पटनायक देते हैं और लंबे पत्र में बताते हैं - कि प्रधानमंत्री के घर के सामान बदलने और उनकी सुरक्षा, मोटर गाड़ी और आवासीय साज-सज्जा पर किस प्रकार अलग-अलग मद में व्यय हो रहा है। इस व्यय का मीजान करने के बाद वे साबित करते हैं कि प्रधानमंत्री पर प्रतिदिन 25 हजार रुपये से ज्यादा खर्च हो रहा है। किशन पटनायक के 30 अगस्त 1962 को लिखे इस पत्र का संक्षिप्त लेकिन तल्ख जवाब जवाहर लाल नेहरू की तरफ से पाँच सितंबर को दिया जाता है और वे उनके लंबे पत्र के विस्तार में जाने से इनकार करते हुए कहते हैं कि - मुझ पर रोजाना 25,000 रुपयों के खर्च का आरोप मूर्खतापूर्ण और फूहड़ है और स्पष्टतः किसी भीतरी द्वेष के कारण लगाया जा सकता है।

यह बहस रोचक है और हमारे लोकतंत्र की उस आरंभिक अवस्था में की गई है जब सत्ता और विपक्ष दोनों ओर समाजवादी समाज कायम करने का जज्बा था। लेकिन लोहिया अगर नेहरू के खर्च और आम आदमी के रोजाना के खर्च के अंतर को स्पष्ट करते हैं तो उनका इरादा गैरबराबरी को जरा तीखे तरीके से उजागर करना होता है। लेकिन वे आय और व्यय की गैर बराबरी का ही सवाल नहीं उठाते बल्कि संपत्ति के अंतर को भी स्पष्ट करते हैं। पर लोहिया इस बहस को इसलिए उठा पाते हैं और किशन पटनायक प्रधानमंत्री को इसलिए पत्र लिख पाते हैं क्योंकि उनका जीवन बेहद सादगी और त्यागपूर्ण था। आज अगर इस तरह साहस समाजवादी नहीं कर पाते तो हम उसकी वजह सहज समझ सकते हैं।

थामस पिकेटी - 'कैपिटल इन ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी' में इस बढ़ती असमानता को दो श्रेणियों में बाँटकर देखते हैं। एक श्रेणी है बढ़ती हुई आय की और दूसरी श्रेणी है बढ़ती हुई संपत्ति की। इसे वे यू (U) आकार के कर्व के नियम विश्लेषित करते हैं। इस यू कर्व में एक निश्चित समय के लिए असमानता पहले घटती है और बाद में बढ़ती है। आय की असमानता के बारे में वे अमेरिकी अध्ययन का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि 1910 और 1920 के दशक में राष्ट्रीय आय में देश की ऊपरी दस प्रतिशत आबादी का हिस्सा 45-50 प्रतिशत के बीच था जो 1950 के दशक तक घटकर 35 प्रतिशत रह गया। 1970 के दशक तक वह इसी के आसपास रहता है और उसके बाद 2000-2010 के दशक तक बढ़कर फिर 45 से 50 प्रतिशत तक पहुँच जाता है।

उसके बाद वे संपत्ति के मामले में भिन्नता के मौलिक नियम का विवेचन करते हुए r>g के सूत्र से अपनी बात समझाते हैं। यहाँ r का तात्पर्य पूँजी से होने वाली औसत सालाना प्राप्तियों से और g का तात्पर्य अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर यानी आय या उत्पाद से है। पूँजी पर होने वाली प्राप्तियों में मुनाफा, लाभांश, ब्याज, किराया और दूसरी आय। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अगर पूँजी पर होने वाली प्राप्तियाँ लंबे समय तक वृद्धि दर से काफी ऊपर रहती हैं तो संपत्ति के वितरण में भिन्नता रहने के खतरे ज्यादा होते हैं। इस अध्ययन में r और g का अनुपात 400 प्रतिशत से 700 तक बढ़ते दिखाया गया है। यह अनुपात 1910 से 1930 तक घटता है और 1950 से 1970 तक धीरे-धीरे उठता है। उस समय यह 200 से 300 प्रतिशत के बीच रहता है और 1990 से 2010 के बीच तेजी से उठकर 600 से 700 प्रतिशत तक पहुँच जाता है।

पिकेटी का कहना है कि अगर यू कर्व का नियम इसी प्रकार चलता रहा तो सन 2100 तक पूरी दुनिया पर पूँजी का वही प्रभाव होगा जो बीसवीं सदी के अंत में यूरोप पर था।

दुनिया में कितनी तेजी से अमीरों की संख्या बढ़ी है फोर्ब्स की सूची के आधार पर इसके चौंकाने वाले प्रमाण इस प्रकार हैं।

 1987 तक दुनिया में 140 अरबपति थे और 2013 तक उनकी संख्या 1400 हो गई।

 सन 1987 तक अरबपतियों के पास सिर्फ 0.4 प्रतिशत वैश्विक निजी संपत्ति थी लेकिन 2013 तक वह 1.5 प्रतिशत हो गई।

 दुनिया के कुल 4.5 अरब लोगों में से 0.1 प्रतिशत संपन्नतम लोगों की तादाद 45 लाख है। उनके पास औसतन एक करोड़ यूरो की संपत्ति है जो कि वैश्विक संपत्ति की 20 प्रतिशत है। और 60,000 यूरो की औसत वैश्विक संपत्ति का दो सौ गुना है।

 दुनिया के 1 प्रतिशत सर्वाधिक अमीरों यानी 4.5 करोड़ लोगों के पास औसतन (प्रति व्यक्ति) तीस लाख यूरो की संपत्ति है। यह औसतन वैश्विक संपत्ति की 50 गुना और सकल वैश्विक संपत्ति की 50 प्रतिशत है।

दुनिया में इतनी असमानता क्यों बढ़ी इस बारे में पिकेटी टिप्पणी करते हुए कारलोस स्लिम और बिल गेट्स जैसे दुनिया के शीर्ष अमीरों पर टिप्पणी करते हैं। उनका कहना है कि यह सब एकाधिकारवादी नियमों का परिणाम है। यह पूँजी पर वसूले जाने वाले रेंट और उन विभिन्न किस्म की कमाइयों का नतीजा है जिसे योग्यता वाली उद्यमशीलता की संज्ञा दी गई। मेक्सिको के रियल इस्टेट और दूरसंचार के बड़े व्यवसायी कारलोस स्लिम और अमेरिका के माइक्रेसाफ्ट के किंग बिल गेट्स पर तंज करते हुए वे कहते हैं कि आखिर बिल गेट्स के काम में उनके इंजीनियरों और वैज्ञानिकों का योगदान नहीं है। क्या उन्होंने अपने परचों का पेटेंट कराया।

इस बहस को आज के भारत के संदर्भ में देखा जाना चाहिए और ऐसे राजनीतिक विमर्श और उसे उठाने वाले राजनेता को तैयार किया जाना चाहिए जो इस बढ़ती असमानता और इसके खतरे को चिह्नित कर सकें। वे सरकार को बता सकें इस असमानता से न सिर्फ सामाजिक अराजकता का खतरा है बल्कि इससे वृद्धि दर के भी घटने का खतरा है। उदारीकरण के दौरान बढ़ती असमानता को वैश्वीकरण और लोकतंत्र के लिए खतरा बताते हुए नोबेल अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिग्लिट्ज अपनी प्रसिद्ध किताब - 'प्राइस ऑफ इनइक्विलिटी' में जिन प्रमुख बिंदुओं को प्रस्तुत करते हैं वे इस प्रकार हैं -

1. हाल की अमेरिकी आय वृद्धि मुख्य रूप से ऊपर के एक प्रतिशत वालों के लिए हो रही है।

2. नतीजतन वहाँ असमानता बढ़ रही है।

3. अमेरिका में जो लोग नीचे और मध्य स्तर पर हैं आज वे वास्तव में उस स्थिति से भी बदतर हैं जहाँ वे सदी के आरंभ में थे।

4. असमानता सिर्फ आय के मामले में नहीं है बल्कि वह विभिन्न क्षेत्रों में दिखाई पड़ रही है। ये क्षेत्र स्वास्थ्य और सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं।

5. आर्थिक ढाँचे के निचले स्तर के लोगों के लिए जीवन बहुत कठिन है और मंदी ने उसे और भी बदतर बना दिया है।

6. अमेरिका का मध्यवर्ग खोखला हो रहा है।

7. आय संबंधी गतिशीलता बहुत संकुचित हो गई है। यह धारणा कि अमेरिका अवसरों का देश है एक मिथक साबित हुई है।

8. किसी भी विकसित औद्योगिक देश के मुकाबले अमेरिका में ज्यादा असमानता है।

9. संपत्ति की असमानता आय की असमानता से ज्यादा है।

अमेरिका में बढ़ती असमानता के लोकतंत्र पर पड़ने वाले असर पर काफी चर्चाएँ हुई हैं और चल भी रही हैं। इस बारे में लिखने वाले और विमर्श चलाने वाले सिर्फ स्टिग्लिट्ज ही नहीं हैं बल्कि ऐसे समाजशास्त्रियों की लंबी फेहरिस्त है।

इस बारे में जैकब एस हैकर और पाल पीयरसन की किताब - 'विनर टेक आल पॉलिटिक्स : हाउ वाशिंगटन मेड द रिच रिचर एंड टर्नड इट्स बैक आन मिडल क्लास', लारेंस लेसिग्स की किताब - 'रिपब्लिक लास्ट : हाउ मनी करप्ट्स कांग्रेस - एंड एक प्लान टू स्पाट इट', लैरी बारटेल्स की किताब 'अनइक्वल डेमोक्रेसी : द पॉलिटिकल इकानमी ऑफ न्यू गिल्डेड एज', नेल्सन मैकार्थी, कीथ टी पूल, हार्वर्ड रोजेनथाल्स की किताब - 'पोलराइज्ड अमेरिका : डांस ऑफ आइडियोलाजी एंड अनइक्वल रिचेज' महत्तवपूर्ण हैं। यह किताबें अपने शीर्षकों के माध्यम से ही साफ कह रही हैं कि बढ़ती असमानता राजनीति और अर्थव्यवस्था दोनों के लिए खतरनाक हैं।

इस असमानता को मिटाने के लिए स्टिग्लिट्ज आय और संपत्ति के पुनर्वितरण की सलाह देते हैं। इस बीच पुनर्वितरण के आलोचकों का कहना है कि इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। समानता के आलोचकों का कहना है कि इस कार्यक्रम से गरीबों का जितना फायदा नहीं होता उससे कहीं ज्यादा ऊपर के तबके का और उनसे भी ज्यादा मध्य तबके का नुकसान होता है। उन लोगों का कहना है कि हम ज्यादा समानता प्राप्त कर सकते हैं लेकिन वह भी जीडीपी की तेजी से घटती दर पर।

इस पर तंज करते हुए स्टिग्लिट्ज कहते हैं - "हकीकत इस धारणा के बिलकुल विपरीत है। हमारे पास एक ऐसी प्रणाली है जो कि रात-दिन धन नीचे से ऊपर ले जाने में लगी हुई है। लेकिन यह प्रणाली इतनी अक्षम है कि ऊपर होने वाला फायदा मध्य स्तर पर होने वाले नुकसान से बहुत कम है।''

चीन में असमानता के स्तर की चर्चा मंथली रिव्यू ने अपने मशहूर अंक - चाइना : द मार्केट सोशलिज्म, में विस्तार से की थी। आज चीन में मंदी की आशंका को देखते हुए वहाँ राजनीतिक अस्थिरता की आशंका जताई जा रही है। यूनान की राजनीतिक अस्थिरता हमारे सामने है।

लेकिन भारत जैसे देश में जहाँ इतनी सामाजिक विविधता और असमानता है कि उसके आगे आर्थिक असमानता गौण हो जाती है। यहाँ के ट्रेड यूनियन आंदोलन, किसान आंदोलन, कर्मचारी आंदोलन, मध्यवर्गीय आंदोलन सभी को धर्म, जाति और भाषा के आधार पर बने समूहों ने तोड़ रखा है। यह जानना दिलचस्प है कि हाल में जनगणना के जो आँकड़े आए हैं उनमें जनता के बड़े तबके में आय की असमानता, लोगों की साधनविहीनता, बेरोजगारी, आर्थिक असुरक्षा, सामाजिक असुरक्षा का विस्तार से वर्णन है। लेकिन हमारे राजनीतिक दलों को अगर चिंता है जो हिंदू और मुसलमानों की आबादी की रफ्तार के आँकड़ों और जाति के आँकड़ों की। ऐसे में इस बात की उम्मीद बहुत कम दिखती है हमारी सरकार आय और संपत्ति की असमानता कम करने के लिए कोई ठोस कदम उठाएगी या पारंपरिक मार्क्सवादी दलों को छोड़कर अन्य पार्टियाँ उस पर कोई गंभीर विमर्श खड़ा करेंगी। लेकिन एक संभावना बनती है और वो यह कि जाति के आधार पर और धर्म के आधार पर आर्थिक असमानता के खिलाफ आवाज उठे। पर यह लड़ाई क्या आर्थिक असमानता को मिटाएगी या आरक्षण और कुछ योजनाओं की घोषणा के साथ उसी प्रकार समाप्त हो जाएगी जिस प्रकार मिलानोविच से विश्व बैंक के अधिकारियों ने कहा था कि चैरिटी की बात तो ठीक है लेकिन आर्थिक असमानता की चर्चा ठीक नहीं है, क्योंकि उससे ऐसा लगता है कि समाज के ताकतवर लोगों की सत्ता और आय अवैध है। सबका साथ और सबका विकास का नारा तो बहुत उछाला जा रहा है लेकिन यह भुला दिया जा रहा है कि इसके भीतर समता की भावना भरे बिना यह अच्छे दिन के नारे की तरह खोखला ही साबित होने वाला है। इस देश का शक्तिशाली तबका राष्ट्रवाद के माध्यम से असमानता की सच्चाई और समता की आवाज को दबाने में लगा है।

भारत में आय और संपत्ति की बढ़ती असमानता और उससे निकलने वाली असुरक्षा भारत में नए किस्म के टकराव और अराजकता की जमीन तैयार कर रही है। यह एक व्यक्ति एक वोट के सिद्धांत को धनतंत्र के नीचे दबाने की कोशिश है। यह वही खतरा है जिसके प्रति आंबेडकर ने आगाह किया था। उनका कहना था कि हम भारी सामाजिक और आर्थिक असमानता की सच्चाइयों के बीच राजनीतिक समानता का संविधान लागू कर रहे हैं लेकिन अगर असमानता को दूर नहीं कर पाए तो जनता संविधान को जला देगी। इस असमानता को दूर करने का एजेंडा आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना 1950 में संविधान को ग्रहण किए जाते समय था या 1963 में लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर दिए गए डॉ. राम मनोहर लोहिया के भाषण के समय था। बस फर्क यही था कि उस समय एक तरफ सोवियत संघ के खेमे और दूसरी तरफ चीन के माओवाद का खौफ था। सर्वहारा की तानाशाही आने के डर से तमाम औद्योगिक देश अपने नागरिकों को साथ लेकर विकास कर रहे थे। न्यू डील, ट्रीटी ऑफ डेट्रायट और यूरोप की कल्याणकारी योजनाएँ थीं। आज इन सबसे ऊपर इस लोकतंत्र की चिंता है। जिस सामाजिक लोकतंत्र की प्रासंगिकता को फ्रांसिस फुकुयामा ने - एंड ऑफ हिस्ट्री में रेखांकित करते हुए कहा है कि 1789 की फ्रांसीसी क्रांति की स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के मूल्य आज भी प्रासंगिक हैं और दुनिया आज भी उन्हीं को हासिल करने में लगी हुई है।

इस असमानता को मिटाने के लिए पिकेटी ने जो सुझाव दिए हैं उनमें सामाजिक राज्य की वापसी की आवश्यकता पर जोर है। 2008 की मंदी के संकट से सामाजिक राज्य की वापसी की चर्चा हो रही है लेकिन उसकी वापसी स्थायी रूप से होनी चाहिए। तभी असमानता की मौजूदा तस्वीर बदल सकती है। लोगों को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र में और रिटायर होने पर सामाजिक सुरक्षा देने की जरूरत है। यानी आज कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को समाप्त करने की बजाय उसके आधुनिकीकरण की आवश्यकता है। एक अच्छी सामाजिक और आर्थिक नीति यह होती है जो बेहद ऊँची आय पर सिर्फ आंशिक ऊँचे कर से ज्यादा कर लगाया जाना चाहिए।

 पिकेटी का कहना है कि बीसवीं सदी में वर्धमान आयकर की अवधारणा विकसित की गई थी लेकिन नई सदी की चुनौती का सामना करने के लिए पूँजी पर ज्यादा वर्धमान (वृद्धिमान) कर की जरूरत है।

 आधनिक पुनर्वितरण प्रणाली आय को अमीर से गरीब की ओर ले जाने पर जोर नहीं देती बल्कि सार्वजनिक सेवा में अक्षमता को प्रोत्साहित करती है।

 पूँजी पर ग्लोबल टैक्स लगाया जाना चाहिए।

 विकासशील देशों की मौजूदा कर प्रणाली को भी बदलने की जरूरत है जो कि सिर्फ ज्यादा लोगों पर कम कर लगाकर काम चलाना चाहती है।

पिकेटी ने साम्यवाद के पतन और आज की स्थितियों को अलग संदर्भ और असमानता पर शोध और विमर्श के नए अवसर के रूप में देखा है। उनका कहना है कि - "राजनीति और विचार सामाजिक और आर्थिक विकास से स्वतंत्र होकर भी चलते हैं। संसदीय संस्थाएँ और सरकारें सिर्फ बुर्जुआ संस्थाएँ नहीं हुआ करती थीं जैसा कि बर्लिन की दीवार गिरने से पहले मार्क्सवादी बुद्धिजीवी कहा करते थे। ...1917 से 1989 तक चले दो ध्रुवीय टकराव अब पीछे छूट गए हैं। साम्यवाद और पूँजीवाद के टकरावों ने इतिहासकारों, अर्थशास्त्रियों और दार्शनिकों के लिए पूँजी और गैर बराबरी पर होने वाले शोध को उत्प्रेरित करने की बजाय उसका बंध्याकरण कर दिया। ...उनके विवादों से निकल कर इस शोध को ईमानदारी से बढ़ाने में अभी समय लगेगा।''

इन बिंदुओं पर स्टिग्लिट्ज खुद सवाल पूछते हुए जवाब देते हैं कि यह गैर बराबरी लगता है कि बाजार की देन है। लेकिन बाजार की नीतियाँ बनाने में सरकार का ही योगदान है। पर वे बाजार और वित्तीय गतिविधियों को ज्यादा से ज्यादा पारदर्शी और जवाबदेह बनाने पर जोर देते हैं और इसके लिए सरकारी हस्तक्षेप को जायज ठहराते हैं। हालाँकि तमाम बाजारवादी सरकारी हस्तक्षेप को गलत मानते हुए बाजार को ज्यादा से आजादी देने और स्थिति को उसी के भरोसे छोड़ देने का सुझाव देते हैं।

इस बारे में किशन पटनायक 1990 में गांधी का समाजवाद और ट्रस्टीशिप के विचार शीर्षक से लिखे लेख में डॉ. राम मनोहर लोहिया द्वारा 1967 में प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धांत का हवाला देते हैं। गांधीजी ने कहा - "मैं न आरामकुरसी के समाजवाद और न ही सशस्त्र समाजवाद में विश्वास करता हूँ। मेरा विश्वास है कि कुछ मुख्य उद्योग जरूरी हैं। मैं अपनी निष्ठा के आधार पर या उसके मुताबिक पूर्ण हृदय परिवर्तन की प्रतीक्षा किए बिना कर्म में विश्वास करता हूँ। मैं उन उद्योगों को राज्य की मिल्कियत के अंतर्गत करता जहाँ बहुत से लोग काम करते हैं वहाँ इन लोगों का श्रम दक्ष हो या अदक्ष, उत्पादन की मिल्कियत राज्य के माध्यम से इन लोगों के पास ही रहेगी। मैं पैसे वाले आदमियों को जबरन नहीं हटाऊँगा वरन राज्य की मिल्कियत में परिवर्तित करने की प्रक्रिया में उनका सहयोग आमंत्रित करूँगा। समाज से अलग या बहिष्कृत कोई नहीं है, भले ही वह लखपति हो या कंगाल। लखपति और कंगाल एक ही बीमारी के घाव हैं।''

किशन पटनायक लिखते हैं - "गांधीजी ने एकदम स्पष्ट व जोरदार ढंग से मालिकों को ट्रस्टियों में बदलने की बात कही, उन्होंने कहा कि लाखों-करोड़ों द्वारा सत्ता व संपत्ति में हिस्सा प्राप्त करने की इच्छा के कारण असमानता का बना रहना असंभव हो जाएगा।''

गांधीजी आगे कहते हैं - "जब जनता के पास, जमीन जोतने वालों के लिए राजनीतिक ताकत न हो तब के लिए सविनय अवज्ञा और असहयोग के तरीके हैं पर जैसे ही उन्हें राजनैतिक सत्ता और ताकत हासिल होगी, यह स्वाभाविक होगा कि उनकी हालत कानूनी तरीके से सुधारी जाए। लेकिन किसान को शायद इतनी राजनैतिक सत्ता न प्राप्त हो... यदि विधानमंडल किसानों के हितों का संरक्षण करने में असमर्थ रहा तो किसानों के पास हमेशा सविनय अवज्ञा का अमोघ अस्त्र है ही...।''

गांधी यहीं नहीं रुकते बल्कि वे लखपतियों (अरबपतियों) और कंगालियों की बीमारी को दूर करने के लिए स्पष्ट और निर्भीक विचार रखना जारी रखते हैं। वे उन स्थितियों को हटाना चाहते हैं जहाँ यह बीमारी पलती है। "कोई भी व्यक्ति चाहे वह शाहजादा हो या व्यापारी वंशगत या स्वअर्जित संपत्ति का स्वयं मालिक नहीं हो सकता, न ही इस संपत्ति के बारे में उसका स्वैच्छिक अधिकार हो सकता है। वर्तमान असमानताएँ निश्चय ही लोगों के अज्ञान के कारण हैं। लोगों को अपनी स्वाभाविक शक्ति का ज्ञान जैसे ही बढ़ेगा असमानताओं का खत्म होना लाजिमी है।"

गांधी के इन्हीं विचारों के आधार पर 1966 के उत्तरार्ध में (यह) गैर सरकारी विधेयक लोकसभा के सचिवालय को भेजा था और तब यह 'भारतीय ट्रस्टीशिप विधेयक 1966' था। उन्होंने इसे 17 मार्च, 1967 को इसे वर्ष बदलकर फिर भेजा। 12 जून को औद्योगिक विकास मंत्री फखरुद्दीन अली अहमद ने डॉ. लोहिया को सूचित किया कि धन संबंधी विधेयक होने के कारण राष्ट्रपति ने इसे पेश किए जाने की अनुमति दिए जाने से इनकार कर दिया है। डॉ. लोहिया ने विधेयक पर फिर विचार करने का अनुरोध किया, यह कहते हुए कि इसकी धाराएँ बाध्यतामूलक नहीं हैं।

विधेयक की प्रस्तावना में लोहिया ने लिखा था, "महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि जब हिंदुस्तान आजाद हो जाएगा तो सब पूँजीपतियों को यह अवसर दिया जाएगा कि वे कानूनी ट्रस्टी बन जाएँ। यह विधेयक बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिकों को इस तरह का अवसर प्रदान करता है और गांधीजी के ट्रस्टीशिप सिद्धांतों के अनुसार इससे पैदा होने वाले ट्रस्ट निगमों के लोकतांत्रिक प्रबंध की व्यवस्था करता है। इस विधेयक की धाराओं का उद्देश्य शांतिपूर्ण तरीकों से समाजवादी समाज का युग लाना है।''

हम जानते हैं कि इन बातों को याद करना और उनके आधार पर सिद्धांत और कार्यक्रम बनाना आसान है लेकिन पूँजीपतियों को ट्रस्टी बनने के लिए तैयार करना आसान नहीं है। यह बात पिकेटी भी उस समय कहते हैं जब ग्लोबल कैपिटल टैक्स की बात करते हैं और इसे एक यूटोपिया विचार बताते हैं। लेकिन आज दुनिया भर में जो महसूस किया जा रहा है उसे माँग की शक्ल देने की पहल हम गांधी, लोहिया और किशन पटनायक के विचारों को मानने वाले तो कर ही सकते हैं।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में अरुण कुमार त्रिपाठी की रचनाएँ